नाग पंचमी की कहानी Nag Panchami Vrat Katha

नाग पंचमी की कहानी Nag Panchami Vrat Katha

Nag Panchami Vrat Katha Details

📌 Song Titel Nag Panchami Vrat Katha
🏷️Music Label Hindi Bhjan

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जय भोलेनाथ ओम नमः शिवाय आप सभी भक्त गणों को नाग पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें, नाग पंचमी के दिन जो भी भक्त नाग देवता की पूजा करके उन्हें दूध से स्नान कराता है उनके निमित व्रत कथा को सुनता या पढता है तो उनके जीवन में कभी भी धन का अभाव नहीं होता वे धनपति होते हैं तथा सुख समृधि मान प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है.

तो आइये सुनते हैं नाग पंचमी की पौराणिक कहानी. प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे और सातों के विवाह हो चुके थी। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की और सुशील थी, लेकिन उसका कोई भाई नहीं था। एक दिन उस घर की बड़ी बहू ने घर लीपने के लिए पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी एक साथ डलिया और खुरपी लेकर मिट्टी खोदने के लिए निकल पड़ीं।

जब बहुएं मिट्टी खोद रही थीं तभी वहां एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने का प्रयास करने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोका और कहा यह बेचारा निरपराध है। यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा तब वो सांप एक ओर जा बैठा। तब छोटी बहू ने सर्प से कहा मैं अभी लौट कर आती हूँ तुम यहां से जाना मत।

इतना कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और कामकाज में फंसकर सर्प से जो वादा किया था वो उसे भूल गई। उसे दूसरे दिन सर्प से बोली हुई बात याद आई तो वो सब को साथ लेकर वहां पहुंची। सर्प अभी भी उस स्थान पर बैठा हुआ था जिसे देखकर छोटी बहु बोली,भैया मुझसे भूल हो गई, उसकी क्षमा मांगती हूं।’

तब सर्प बोला: अच्छा, तू आज से मेरी बहिन है और मैं तेरा भाई तुझे मुझसे जो मांगना हो, मांग ले। वह बोली: मेरा कोई भैया! नहीं है, अच्छा हुआ तुम मेरे भाई बन गए। कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सांप मनुष्य रूप धारण करके छोटी बहु के घर आया और उससे कहा कि मैं इसका दूर के रिश्ते का भाई हूं, बचपन में ही बाहर चला गया था।

उसके विश्वास दिलाने पर परिवार के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि मैं वहीं सर्प हूं, इसलिए तू डरना मत और जहां चलने में कठिनाई हो वहां मेरी पूछ पकड़ लेना। छोटी बहू ने वैसा ही किया और इस प्रकार वह उसके घर पहुंच गई। सर्प के घर के धन-ऐश्वर्य को देखकर वह चकित हो गई।

इस तरह से वो उसके घर में रहने लगी। एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा, मैं एक काम से बाहर जा रही हूं, तू अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे इस बात का ध्यान नहीं रहा और उसने सांप को गर्म दूध पिला दिया, जिससे उसका मुख जल गया। यह देखकर सर्प की माता को गुस्सा आ गया। परंतु सर्प के समझाने पर वह चुप हो गई।

तब सर्प ने कहा कि बहिन को अब उसके घर भेजना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चांदी, जवाहरात, वस्त्र-भूषण आदि देकर घर पहुंचा दिया। इतना ढेर सारा धन देखकर बड़ी बहू उसने जलने लगी और कहने लगी कि तेरा भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे तो उससे और भी धन लाना चाहिए।

सर्प ने जब ये वचन सुना तो उसने सब वस्तुएं सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा इन वस्तुओं को झाड़ने की झाड़ू भी सोने की होनी चाहिए। तब सर्प ने झाडू भी सोने की लाकर दे दी। सर्प ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया। जिसकी प्रशंसा उस राज्य की रानी ने भी सुनी और वो राजा से बोली कि सेठ की छोटी बहू का हार मुझे चाहिए।

राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि उससे वह हार तुरंत ही ले आओ। मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि महारानी जी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह हमें दे दो। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार लेकर उन्हें दे दिया। छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने सांप भाई को याद किया और उससे प्रार्थना की, भैया! रानी ने हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जैसे ही रानी वो हार पहनें वह सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब वो हार हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सर्प में बदल गया।

यह देखकर रानी चीख पड़ी और डर गई। यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठजी स्वयं छोटी बहू को लेकर राजा के दरबार में उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से इसका कारण पूछा तो वह बोली, “राजन! धृष्टता क्षमा कीजिए ये हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और अगर इसे कोई और पहनता है तो ये उसके गले में सर्प बन जाता है।” छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना वैसे ही हीरों-मणियों का हो गया। यह देखकर राजा ने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार दिया।

 

मंगला गौरी व्रत कथा Mangala Gauri Vrat Katha

 

श्रावण माह के प्रत्येक मंगलवार को माँ गौरी को समर्पित यह व्रत मंगला गौरी व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। मंगला गौरी व्रत महिलाओं के बीच उनके पति की लंबी आयु के लिए जाना जाता है।
मंगला गौरी पौराणिक व्रत कथा

एक समय की बात है, एक शहर में धरमपाल नाम का एक व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी काफी खूबसूरत थी और उसके पास काफी संपत्ति थी। लेकिन कोई संतान न होने के कारण वे दोनों अत्यंत दुःखी रहा करते थे।

ईश्वर की कृपा से उनको एक पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वह अल्पायु था। उसे यह श्राप मिला था कि 16 वर्ष की उम्र में सांप के काटने से उसकी मौत हो जाएगी। संयोग से उसकी शादी 16 वर्ष से पहले ही एक युवती से हुई जिसकी माता मंगला गौरी व्रत किया करती थी।

परिणाम स्वरूप उसने अपनी पुत्री के लिए एक ऐसे सुखी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त किया था जिसके कारण वह कभी विधवा नहीं हो सकती थी। इस वजह से धरमपाल के पुत्र ने 100 साल की लंबी आयु प्राप्त की।

इस कारण से सभी नवविवाहित महिलाएं इस पूजा को करती हैं तथा गौरी व्रत का पालन करती हैं तथा अपने लिए एक लंबी, सुखी तथा स्थायी वैवाहिक जीवन की कामना करती हैं। जो महिला इस मंगला गौरी व्रत का पालन नहीं कर सकतीं, उस महिला को श्री मंगला गौरी पूजा को तो कम से कम करना ही चाहिए।

इस कथा को सुनने के पश्चात विवाहित महिला अपनी सास एवं ननद को 16 लड्डू देती है। इसके उपरांत वे यही प्रसाद ब्राह्मण को भी ग्रहण करतीं है। इस विधि को पूरा करने के बाद व्रती 16 बाती वाले दीपक से देवी की आरती करती हैं।

व्रत के दूसरे दिन बुधवार को देवी मंगला गौरी की प्रतिमा को नदी अथवा पोखर में विसर्जित किया जाता है। अंत में माँ गौरी के सामने हाथ जोड़कर अपने समस्त अपराधों के लिए एवं पूजा में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा अवश्य मांगें। इस व्रत एवं पूजा के अनुष्ठा को परिवार की खुशी के लिए लगातार 5 वर्षों तक किया जाता है।

अत: इस मंगला गौरी व्रत को नियमानुसार करने से प्रत्येक व्रती के वैवाहिक जीवन में सुख की बढ़ोतरी होती है. तथा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति एवं पुत्र-पौत्रादि का जीवन भी सुखपूर्वक व्यतीत होता है, ऐसी इस मंगला गौरी व्रत की महिमा वर्णित की जाती है।

 

श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा Brihaspatidev Vrat Katha In Hindi

Brihaspatidev Vrat Katha Song Details

📌 Song Title Brihaspatidev Vrat Katha
🏷️ Music Label Priyanka Dharm

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श्री बृहस्पतिवार व्रत कथा | बृहस्पतिदेव की कथा Shri Brihaspatidev Ji Vrat Katha

बृहस्पतिवार देव की जय, प्रिय भक्त जनों आज बृहस्पतिवार के दिन आप बड़ी ही दुर्लभ पौराणिक कथा सुनेंगे. जो भक्त इस कथा को ध्यानपूर्वक सुनता है उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है. भारतवर्ष में एक प्रतापी और दानी राजा राज्य करता था। वह नित्य गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था। यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न ही गरीबों को दान देती, न ही भगवान का पूजन करती थी और राजा को भी दान देने से मना किया करती थी।

एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए हुए थे, तो रानी महल में अकेली थी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु वेष में राजा के महल में भिक्षा के लिए गए और भिक्षा माँगी रानी ने भिक्षा देने से इन्कार किया और कहा: हे साधु महाराज मैं तो दान पुण्य से तंग आ गई हूँ। मेरा पति सारा धन लुटाते रहिते हैं। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए फिर न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। साधु ने कहा: देवी तुम तो बड़ी विचित्र हो। धन, सन्तान तो सभी चाहते हैं। पुत्र और लक्ष्मी तो पापी के घर भी होने चाहिए।

यदि तुम्हारे पास अधिक धन है तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते उनका विवाह करा दो। ऐसे और कई काम हैं जिनके करने से तुम्हारा यश लोक-परलोक में फैलेगा। परन्तु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव न पड़ा। वह बोली: महाराज आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जो हर जगह बाँटती फिरूं।

साधु ने उत्तर दिया यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्‌टी से अपना सिर धोकर स्नान करना, भट्‌टी चढ़ाकर कपड़े धोना, ऐसा करने से आपका सारा धन नष्ट हो जाएगा। इतना कहकर वह साधु महाराज वहाँ से विलुप्त हो गये। साधु के अनुसार कही बातों को पूरा करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे, कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई।

भोजन के लिए राजा का परिवार तरसने लगा। तब एक दिन राजा ने रानी से बोला कि हे रानी, तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहाँ पर सभी लोग मुझे जानते हैं। इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता। ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वहाँ वह जंगल से लकडी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा। इधर, राजा के परदेश जाते ही रानी और दासी दुःखी रहने लगी।

एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पडा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा: हे दासी! पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और कुछ ले आ, ताकि थोड़ी-बहुत गुजर-बसर हो जाए। दासी रानी की बहन के पास गई। उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी। दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया।

जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुःखी हुई और उसे क्रोध भी आया। दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी। सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा। उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी। कथा सुनकर और पूजन समाप्त करके वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी: हे बहन! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी।

तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। कहो दासी क्यों गई थी? रानी बोली: बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं था। ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई। उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की बात अपनी बहन को विस्तार पूर्वक सुना दी। रानी की बहन बोली: देखो बहन! भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं।

देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो। पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घडा मिल गया। यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई। दासी रानी से कहने लगी: हे रानी! जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें।

तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया, बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें। इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं। व्रत और पूजन विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई। सात दिन के बाद जब गुरुवार आया, तो रानी और दासी ने व्रत रखा। घुडसाल में जाकर चना और गुड़ लेकर आईं। फिर उससे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया।

अब पीला भोजन कहाँ से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुःखी थे। चूंकि उन्होंने व्रत रखा था, इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे। इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए। भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया। उसके बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगी। बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी।

तब दासी बोली: देखो रानी! तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है। रानी को समझाते हुए दासी कहती है कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए, और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे।

दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा। एक दिन राजा दुःखी होकर जंगल में एक पेड़ के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। वह अपनी दशा को याद करके व्याकुल होने लगा। बृहस्पतिवार का दिन था, एकाएक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकड़हारे के सामने आकर बोले: हे लकड़हारे! इस सुनसान जंगल में तू चिन्ता मग्न क्यों बैठा है? लकड़हारे ने दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और उत्तर दिया: महात्मा जी! आप सब कुछ जानते हैं, मैं क्या कहूँ।

यह कहकर रोने लगा और साधु को अपनी आत्मकथा सुनाई। महात्मा जी ने कहा: तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन बृहस्पति भगवान का निरादर किया है जिसके कारण रुष्ट होकर उन्होंने तुम्हारी यह दशा कर दी। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जायेंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। तुम बृहस्पति के दिन कथा किया करो। दो पैसे के चने मुनक्का लाकर उसका प्रसाद बनाओ और शुद्ध जल से लोटे में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करो। कथा के पश्चात अपने सारे परिवार और सुनने वाले प्रेमियों में अमृत व प्रसाद बांटकर आप भी ग्रहण करो।

ऐसा करने से भगवान तुम्हारी सब मनोकामनाएँ पूरी करेंगे। साधु के ऐसे वचन सुनकर लकडहारा बोला: हे प्रभो! मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता, जिससे भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं जिससे मैं उसकी खबर मंगा सकूं। साधु ने कहा: हे लकडहारे! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियाँ लेकर शहर को जाओ। तुमको रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा। इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए।

धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी शहर में बेचने गया, उसे उस दिन और दिन से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना गुड आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए, परन्तु जब दुबारा गुरुवार का दिन आया तो बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए। उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनावे न आग जलावे समस्त जनता मेरे यहाँ भोजन करने आवे।

इस आज्ञा को जो न मानेगा उसे फाँसी की सजा दी जाएगी। इस तरह की घोषणा सम्पूर्ण नगर में करवा दी गई। राजा की आज्ञानुसार शहर के सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुँचा इसलिए राजा उसको अपने साथ घर लिवा ले गए और ले जाकर भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह वहाँ पर दिखाई नहीं दिया। रानी ने निश्चय किया कि मेरा हार इस मनुष्य ने चुरा लिया है। उसी समय सिपाहियों को बुलाकर उसको कारागार में डलवा दिया। जब लकड़हारा कारागार में पड़ गया और बहुत दुःखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है, और उसी साधु को याद करने लगा जो कि जंगल में मिला था।

उसी समय तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हुए और उसकी दशा को देखकर कहने लगे: अरे मूर्ख! तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं करी इस कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर बृहस्पतिवार के दिन कारागार के दरवाजे पर चार पैसे पडे मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पतिदेव की पूजा करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बृहस्पति के दिन उसे चार पैसे मिले। लकडहारे ने कथा कही उसी रात्रि को बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा: हे राजा! तूमने जिस आदमी को कारागार में बन्द कर दिया है वह निर्दोष है।

वह राजा है उसे छोड़ देना। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका है। अगर तू ऐसा नही करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा। इस तरह रात्रि के स्वप्न को देखकर राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा लकड़हारे को योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण देकर विदा कर दिया। बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार लकड़हारा अपने नगर को चल दिया। राजा जब अपने नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब, कुएं तथा बहुत सी धर्मशाला मन्दिर आदि बन गई हैं। राजा ने पूछा यह किसका बाग और धर्मशाला हैं, तब नगर के सब लोग कहने लगे यह सब रानी और बांदी के हैं। तो राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आरहे हैं, तो उन्होंने बाँदी से कहा कि: हे दासी! देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे। हमारी ऐसी हालत देखकर वह लौट न जायें, इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी होजा।

आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खडी हो गई। राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी रानी से पूछा कि यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है, तब उन्होंने कहा: हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है। राजा ने निश्चय किया कि सात रोज बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं परन्तु मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कहानी तथा रोज व्रत किया करूँगा। अब हर समय राजा के दुपट्‌टे में चने की दाल बँधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता।

एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहाँ हो आवें। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहाँ को चलने लगा। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं, उन्हें रोककर राजा कहने लगा: अरे भाइयों! मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो। वे बोले: लो! हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु कुछ आदमी बोले: अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और जब कथा आधी हुई थी कि मुर्दा हिलने लग गया और जब कथा समाप्त हो गई तो राम-राम करके मनुष्य उठकर खड़ा हो गया।

आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उसे देख और उससे बोले: अरे भईया! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो। किसान बोला जब तक मैं तेरी कथा सुनूंगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना। इस तरह राजा आगे चलने लगा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बड़ी जोर का दर्द होने लगा। उस समय उसकी माँ रोटी लेकर आई, उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा और बेटे ने सभी हाल कह दिया तो बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुडसवार के पास गई और उससे बोली कि मैं तेरी कथा सुनूंगी तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर ही कहना।

राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही वह बैल उठ खड़ हुए तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया। राजा अपनी बहन के घर पहुँचा। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जगा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा: ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहन बोली: हे भैया! यह देश ऐसा ही है कि पहले यहाँ लोग भोजन करते हैं, बाद में अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में हो तो देख आउं।

वह ऐसा कहकर देखने चली गई परन्तु उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसने भोजन न किया हो अतः वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड़का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उनके यहाँ तीन रोज से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक होगया, अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।

एक रोज राजा ने अपनी बहन से कहा कि हे बहन! हम अपने घर को जायेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से कहा। सास ने कहा हाँ चली जा। परन्तु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं है। बहन ने अपने भईया से कहा: हे भईया! मैं तो चलूंगी पर कोई बालक नहीं जाएगा। राजा बोला: जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम ही क्या करोगी। बड़े दुःखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया।

राजा ने अपनी रानी से कहा: हम निरवंशी हैं। हमारा मुंह देखने का धर्म नहीं है और कुछ भोजन आदि नहीं किया। रानी बोली: हे प्रभो! बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वह हमें औलाद अवश्य देंगे। उसी रात को बृहस्पतिदेव ने राजा से स्वप्न में कहा: हे राजा उठ। सभी सोच त्याग दे, तेरी रानी गर्भ से है। राजा की यह बात सुनकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने में उसके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला: हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, पर बिना कहे नहीं रह सकती।

जब मेरी बहन आवे तुम उससे कुछ कहना मत। रानी ने सुनकर हाँ कर दिया। जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहाँ आई, तभी रानी ने कहा: घोड़ा चढ़कर तो नहीं आई, गधा चढ़ी आई। राजा की बहन बोली: भाभी मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती। बृहस्पतिदेव ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनाएँ हैं, सभी को पूर्ण करते हैं, जो सदभावनापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढता है, अथवा सुनता है, दूसरो को सुनाता है, बृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

 

108 Names of Lord Vishnu | भगवान विष्णु के 108 नाम

 

No.Sanskrit Name, English Name , Name Mantra, Meaning

📌Song Title 108  Names of  Lord  Vishnu
🏷️Music Label Smunni Tv

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1.विष्णुVishnuॐ विष्णवे नमः।All Prevailing Lord
2.लक्ष्मीपतिLakshmipatiॐ लक्ष्मीपतये नमः।Consort of Goddess Lakshmi
3.कृष्णKrishnaॐ कृष्णाय नमः।Dark-Complexioned Lord
4.वैकुण्ठVaikunthaॐ वैकुण्ठाय नमः।Home of Lord Vishnu
5.गरुडध्वजाGarudadhwajaॐ गरुडध्वजाय नमः।Name of Lord Vishnu
6.परब्रह्मParabrahmaॐ परब्रह्मणे नमः।The Supreme Absolute Truth
7.जगन्नाथJagannathaॐ जगन्नाथाय नमः।Lord of the Universe
8.वासुदेवVasudevaॐ वासुदेवाय नमः।Indwelling God
9.त्रिविक्रमTrivikramaॐ त्रिविक्रमाय नमः।Conqueror of All the Three Worlds
10.दैत्यान्तकाDaityantakaॐ दैत्यान्तकाय नमः।Destroyer of Evils
11.मधुरिMadhuriॐ मधुरिपवे नमः।Sweetness
12.तार्क्ष्यवाहनTaksharyavahanaॐ तार्क्ष्यवाहनाय नमः।Name of Lord Vishnu’s Carriage
13.सनातनSanatanaॐ सनातनाय नमः।The Eternal Lord
14.नारायणNarayanaॐ नारायणाय नमः।The Refuge of Everyone
15.पद्मनाभाPadmanabhaॐ पद्मनाभाय नमः।The Lord Who has a Lotus Shaped Navel
16.हृषीकेशHrishikeshaॐ हृषीकेशाय नमः।The Lord of All Senses
17.सुधाप्रदायSudha pradayaॐ सुधाप्रदाय नमः।
18.माधवMadhavaॐ माधवाय नमः।Knowledge Filled God
19.पुण्डरीकाक्षPundarikakshaॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः।The Lotus Eyed Lord
20.स्थितिकर्ताSthitikartaॐ स्थितिकर्त्रे नमः।A name of Lord Vishnu
21.परात्पराParatparaॐ परात्पराय नमः।Greatest amongst the greats
22.वनमालीVanamaliॐ वनमालिने नमः।One Who Wears a Garland of Forest Flowers
23.यज्ञरूपाYagyaroopaॐ यज्ञरूपाय नमः।
24.चक्रपाणयेChakrapanayeॐ चक्रपाणये नमः।
25.गदाधरGadadharaॐ गदाधराय नमः।One Who Holds a Mace (Gada
)26.उपेन्द्रUpendraॐ उपेन्द्राय नमः।Brother of Indra
27.केशवKeshavaॐ केशवाय नमः।He Who has Beautiful Locks of Hair
28.हंसHamsaॐ हंसाय नमः।
29.समुद्रमथनSamudramathanaॐ समुद्रमथनाय नमः।
30.हरयेHariॐ हरये नमः।The Lord of Nature
31.गोविन्दGovindaॐ गोविन्दाय नमः।One Who Pleases the Cows and the Nature
32.ब्रह्मजनकBrahmajanakaॐ ब्रह्मजनकाय नमः।
33.कैटभासुरमर्दनायKaitabhasuramardanaॐ कैटभासुरमर्दनाय नमः।
34.श्रीधरShridharaॐ श्रीधराय नमः।Holder of Sri
35.कामजनकायKamajanakaॐ कामजनकाय नमः।
36.शेषशायिनीSheshashayiniॐ शेषशायिने नमः।
37.चतुर्भुजChaturbhujaॐ चतुर्भुजाय नमः।Four-Armed Lord
38.पाञ्चजन्यधराPanchajanyadharaॐ पाञ्चजन्यधराय नमः।
39.श्रीमतShrimataॐ श्रीमते नमः।Name of Lord Vishnu
40.शार्ङ्गपाणयेSharngapanaॐ शार्ङ्गपाणये नमः।
41.जनार्दनायJanardanaॐ जनार्दनाय नमः।One Who Helps All Needy People – Like Compassion
42.पीताम्बरधरायPitambaradharaॐ पीताम्बरधराय नमः।He Who Wears Yellow Garments
43.देवDevaॐ देवाय नमः।Divine

44.सूर्यचन्द्रविलोचनSuryachandravilochanaॐ सूर्यचन्द्रविलोचनाय नमः।
45.मत्स्यरूपMatsyaroopaॐ मत्स्यरूपाय नमः।Lord Matsya – An Incarnation of Lord Vishnu

46.कूर्मतनवेKurmatanaveॐ कूर्मतनवे नमः।
47.क्रोडरूपKrodaroopaॐ क्रोडरूपाय नमः।
48.नृकेसरिNrikesariॐ नृकेसरिणे नमः।The Fourth Incarnation of Lord Vishnu

49.वामनVamanaॐ वामनाय नमः।The Dwarf Incarnation of Lord Vishnu

50.भार्गवBhargavaॐ भार्गवाय नमः।
51.रामRamaॐ रामाय नमः।Seventh Incarnation of Lord Vishnu

52.बलीBaliॐ बलिने नमः।The Lord of Strength

53.कल्किKalkiॐ कल्किने नमः।Another Incarnation of Lord Vishnu, Will Appear at the End of Kaliyuga

54.हयाननाHayananaॐ हयाननाय नमः।
55.विश्वम्भराVishwambharaॐ विश्वम्भराय नमः।
56.शिशुमाराShishumaraॐ शिशुमाराय नमः।
57.श्रीकरायShrikaraॐ श्रीकराय नमः।One Who Gives Sri

58.कपिलKapilaॐ कपिलाय नमः।The Great Sage Kapila

59.ध्रुवDhruvaॐ ध्रुवाय नमः।The Changeless in the Midst of Changes

60.दत्तत्रेयDattatreyaॐ दत्तत्रेयाय नमः।Grand Teacher (Guru) in the Universe

61.अच्युताAchyutaॐ अच्युताय नमः।Infallible Lord

62.अनन्तAnantaॐ अनन्ताय नमः।The Endless Lord

63.मुकुन्दMukundaॐ मुकुन्दाय नमः।The Giver of Liberation

64.दधिवामनाDadhivamanaॐ दधिवामनाय नमः।
65.धन्वन्तरीDhanvantariॐ धन्वन्तरये नमः।A Partial Incarnation of Lord Vishnu Appeared After Churning of Ocean

66.श्रीनिवासShrinivasaॐ श्रीनिवासाय नमः।The Permanent Abode of Shree

67.प्रद्युम्नPradyumnaॐ प्रद्युम्नाय नमः।Very Rich

68.पुरुषोत्तमPurshottamaॐ पुरुषोत्तमाय नमः।The Supreme Soul

69.श्रीवत्सकौस्तुभधराShrivatsa koustubhadharaॐ श्रीवत्सकौस्तुभधराय नमः।
70.मुरारातMurarataॐ मुरारातये नमः।
71.अधोक्षजाAdhokshajaॐ अधोक्षजाय नमः।One Whose Vitality Never Flows Downwards

72.ऋषभायRishabhaॐ ऋषभाय नमः।The Incarnation of Lord Vishnu When He Appeared as the Son of King Nabhi

73.मोहिनीरूपधारीMohiniroopadhariॐ मोहिनीरूपधारिणे नमः।
74.सङ्कर्षणSankarshanaॐ सङ्कर्षणाय नमः।
75.पृथवीPrithviॐ पृथवे नमः।
76.क्षीराब्धिशायिनीKshirabdhishayiniॐ क्षीराब्धिशायिने नमः।
77.भूतात्मBhutatmaॐ भूतात्मने नमः।A Name of Lord Vishnu

78.अनिरुद्धAniruddhaॐ अनिरुद्धाय नमः।One Who Cannot Be Obstructed

79.भक्तवत्सलBhaktavatsalaॐ भक्तवत्सलाय नमः।One Who Loves His Devotees

80.नरNaraॐ नराय नमः।The Guide

81.गजेन्द्रवरदGajendravaradaॐ गजेन्द्रवरदाय नमः।Lord Vishnu Gave a Benediction to Gajendra (Elephant)

82.त्रिधाम्नेTridhamneॐ त्रिधाम्ने नमः।
83.भूतभावनBhutabhavanaॐ भूतभावनाय नमः।
84.श्वेतद्वीपसुवास्तव्यायShwetadwipasuvastavyayaॐ श्वेतद्वीपसुवास्तव्याय नमः।
85.सनकादिमुनिध्येयायSankadimunidhyeyayaॐ सनकादिमुनिध्येयाय नमः।
86.भगवतBhagavataॐ भगवते नमः।Pertaining to Lord (Bhagavan)

87.शङ्करप्रियShankarapriyaॐ शङ्करप्रियाय नमः।
88.नीलकान्तNeelakantaॐ नीलकान्ताय नमः।
89.धराकान्तDharakantaॐ धराकान्ताय नमः।
90.वेदात्मनVedatmanaॐ वेदात्मने नमः।Spirit of the Vedas rests in Lord Vishnu

91.बादरायणBadarayanaॐ बादरायणाय नमः।
92.भागीरथीजन्मभूमि पादपद्माBhagirathi-janmabhumi-padapadmaॐ भागीरथीजन्मभूमि पादपद्माय नमः।
93.सतां प्रभवेSatam-prabhaveॐ सतां प्रभवे नमः।
94.स्वभुवेSwabhuveॐ स्वभुवे नमः।
95.विभवVibhavaॐ विभवे नमः।Glory & Richness

96.घनश्यामGhanashyamaॐ घनश्यामाय नमः।Lord Krishna

97.जगत्कारणायJagatkaranayaॐ जगत्कारणाय नमः।
98.अव्ययAvyayaॐ अव्ययाय नमः।Without Destruction

99.बुद्धावतारBuddhavataraॐ बुद्धावताराय नमः।An Incarnation of Lord Vishnu

100.शान्तात्मShantatmaॐ शान्तात्मने नमः।
101.लीलामानुषविग्रहLila-manusha-vigrahaॐ लीलामानुषविग्रहाय नमः।
102.दामोदरDamodaraॐ दामोदराय नमः।Whose Stomach is Marked With Three Lines

103.विराड्रूपViradroopaॐ विराड्रूपाय नमः।
104.भूतभव्यभवत्प्रभBhootabhavyabhavatprabhaॐ भूतभव्यभवत्प्रभवे नमः।
105.आदिदेवAdidevaॐ आदिदेवाय नमः।The Lord of the Lords

106.देवदेवDevadevaॐ देवदेवाय नमः।The God of the Gods

107.प्रह्लादपरिपालकPrahladaparipalakaॐ प्रह्लादपरिपालकाय नमः।
108.श्रीमहाविष्णुShrimahavishnuॐ श्रीमहाविष्णवे नमः।Name of Lord Vishnu

अब कर ले हरि से प्रीत रे Ab Kar Le Hari Se Preet Re Lyrics – Tripti Shakya

 

Ab Kar Le Hari Se Preet Re Lyrics in Hindi and English. This vishnu bhajan is sung by Tripti Shakya, written by Sandeep Agarwal and music created by Bijendra Chauhan.

Ab Kar Le Hari Se Preet Re Song Details

📌 Song Title Ab Kar Le Hari Se Preet Re
🎤Singer Tripti Shakya
✍️Lyrics Sandeep Agarwal
🎼Music Bijendra Chauhan
🏷️ Music Label Wings Music

▶ See the music video of Ab Kar Le Hari Se Preet Re Song on Wings Music YouTube channel for your reference and song details.

Ab Kar Le Hari Se Preet Re Lyrics in English

Are bahut nibha li
Are bahut nibha li preet jagat se
Ab kar le hari se preet re
Teen lok mein hari se sachcha
Aur nahi koi meet re

Are bahut nibha li preet jagat se
Ab kar le hari se preet re
Teen lok mein hari se sachcha
Aur nahi koi meet re

Ban ke raha jagat ka har pal
Kya kya khel dikhaye re tune
Jaise jisne tujhe nachaya
Waise hi nachata jaye re pagle
Jagat rijhane ko na jaane
Gaye kya kya geet re
Teen lok mein hari se sachcha
Aur nahi koi meet re

Kya khoya kya paya jag mein
Kisne sath nibhaya tera
Jab jab bhatka tu raste se
Kisne tujhko bachaya
Hai swarthi jab haal jagat ka
Hari nibhaye reet re
Teen lok mein hari se sachcha
Aur nahi koi meet re

Ab bhi wakt sambhal ja warna
Ant samay pachhtayega
Chahega hari naam tu lena
Par tu le na payega pagle
Chhod jagat hari sharan mein aaja
Ho jayegi teri jeet re
Teen lok mein hari se sachcha
Aur nahi koi meet re

 

Ab Kar Le Hari Se Preet Re Lyrics in Hindi

अरे बहुत निभा ली
अरे बहुत निभा ली प्रीत जगत से
अब कर ले हरि से प्रीत रे
तीन लोक में हरि से सच्चा
और नहीं कोई मीत रे

अरे बहुत निभा ली प्रीत जगत से
अब कर ले हरि से प्रीत रे
तीन लोक में हरि से सच्चा
और नहीं कोई मीत रे

बन के रहा जगत का हर पल
क्या क्या खेल दिखाए रे तूने
जैसे जिसने तुझे नचाया
वैसे ही नाचता जाए रे पगले
जगत रिझाने को ना जाने
गाए क्या क्या गीत रे
तीन लोक में हरि से सच्चा
और नहीं कोई मीत रे

क्या खोया क्या पाया जग में
किसने साथ निभाया तेरा
जब जब भटका तू रस्ते से
किसने तुझको बचाया
है स्वार्थी जब हाल जगत का
हरि निभाए रीत रे
तीन लोक में हरि से सच्चा
और नहीं कोई मीत रे

अब भी वक्त संभल जा वरना
अंत समय पछताएगा
चाहेगा हरि नाम तू लेना
पर तू ले ना पाएगा पगले
छोड़ जगत हरि शरण में आजा
हो जाएगी तेरी जीत रे
तीन लोक में हरि से सच्चा
और नहीं कोई मीत रे

 

श्री दत्तात्रेय वज्र कवच Shree Dattatreya Vajra Kavacham

Shree Dattatreya Vajra Kavacham Song Detials

📌 Song Title
Shree Dattatreya Vajra Kavacham
🎤 Singer Shubhangi Joshi
🏷️Music Label Bhakti Vision
▶ See the music video of Shree Dattatreya Vajra Kavacham Song on Bhakti Vision YouTube channel for your reference and song details.

श्री दत्तात्रेय वज्र कवच

॥श्रीहरि:॥

श्रीगणेशाय नम:। श्रीदत्तात्रेयाय नम:। ऋषय ऊचु:।

कथं संकल्पसिद्धि: स्याद्वेदव्यास कलौ युगे।

धर्मार्थकाममोक्षणां साधनं किमुदाह्रतम्‌॥१॥

व्यास उवाच।

श्रृण्वन्तु ऋषय: सर्वे शीघ्रं संकल्पसाधनम्‌।

सकृदुच्चारमात्रेण भोगमोक्षप्रदायकम्‌॥२॥

गौरीश्रृङ्गे हिमवत: कल्पवृक्षोपशोभितम्‌।

दीप्ते दिव्यमहारत्नहेममण्डपमध्यगम्‌॥३॥

रत्नसिंहासनासीनं प्रसन्नं परमेश्वरम्‌।

मन्दस्मितमुखाम्भोजं शङ्करं प्राह पार्वती॥४॥

श्रीदेव्युवाच

देवदेव महादेव लोकशङ्कर शङ्कर।

मन्त्रजालानि सर्वाणि यन्त्रजालानि कृत्स्नश:॥५॥

तन्त्रजालान्यनेकानि मया त्वत्त: श्रुतानि वै।

इदानीं द्रष्टुमिच्छामि विशेषेण महीतलम्‌॥६॥

इत्युदीरितमाकर्ण्य पार्वत्या परमेश्वर:।

करेणामृज्य संतोषात्पार्वतीं प्रत्यभाषत॥७॥

मयेदानीं त्वया सार्धं वृषमारुह्य गम्यते।

इत्युक्त्वा वृषमारुह्य पार्वत्या सह शङ्कर:॥८॥

ययौ भूमण्डलं द्रष्टुं गौर्याश्चित्राणि दर्शयन्‌।

क्वचिद्‌ विन्ध्याचलप्रान्ते महारण्ये सुदुर्गमे॥९॥

तत्र व्याहन्तुमायान्तं भिल्लं परशुधारिणम्‌।

वध्यमानं महाव्याघ्रं नखदंष्ट्राभिरावृतम्‌॥१०॥

अतीव चित्रचारित्र्यं वज्रकायसमायुतम्‌।

अप्रयत्नमनायासमखिन्नं सुखमास्थितम्‌॥११॥

पलायन्तं मृगं पश्चाद्‌ व्याघ्रो भीत्या पलायित:।

एतदाश्चर्यमालोक्य पार्वती प्राह शङ्करम्‌॥१२॥

पार्वत्युवाच

किमाश्चर्यं किमाश्चर्यमग्ने शम्भो निरीक्ष्यताम्‌।

इत्युक्त: स तत: शम्भूर्दृष्ट्‌वा प्राह पुराणवित्‌॥१३॥

श्रीशङ्कर उवाच

गौरि वक्ष्यामि ते चित्रमवाङ्मनसगोचरम्‌।

अदृष्टपूर्वमस्माभिर्नास्ति किञ्चिन्न कुत्रचित्‌॥१४॥

मया सम्यक्‌ समासेन वक्ष्यते श्रृणु पार्वति।

अयं दूरश्रवा नाम भिल्ल: परमधार्मिक:॥१५॥

समित्कुशप्रसूनानि कन्दमूलफलादिकम्‌।

प्रत्यहं विपिनं गत्वा समादाय प्रयासत:॥१६॥

प्रिये पूर्वं मुनीन्द्रेभ्य: प्रयच्छति न वाञ्छति।

तेऽपि तस्मिन्नपि दयां कुर्वते सर्वमौनिन:॥१७॥

दलादनो महायोगी वसन्नेव निजाश्रमे।

कदाचिदस्मरत्‌ सिद्धम दत्तात्रेयं दिगम्बरम्‌॥१८॥

दत्तात्रेय: स्मर्तृगामी चेतिहासं परीक्षितुम‌।

तत्क्षणात्सोऽपि योगीन्द्रो दत्तात्रेय: समुत्थित:॥१९॥

तं दृष्ट्वाऽऽश्चर्यतोषाभ्यां दलादनमहामुनि:।

सम्पूज्याग्रे निषीदन्तं दत्तात्रेयमुवाच तम्‍॥२०॥

मयोपहूत: सम्प्राप्तो दत्तात्रेय महामुने।

स्मर्तृगामी त्वमित्येतत्‌ किंवदन्तीं परीक्षितुम्‌॥२१॥

मयाद्य संस्मृतोऽसि त्वमपराधं क्षमस्व मे।

दत्तात्रेयो मुनिं प्राह मम प्रकृतिरीदृशी॥२२॥

अभक्त्या वा सुभक्त्या वा य: स्मरेन्मामनन्यधी:।

तदानीं तमुपागत्य ददामि तदभीप्सितम्‌॥२३॥

दत्तात्रेयो मुनि: प्राह दलादनमुनीश्वरम्‌।

यदिष्टं तद्‌ वृणीष्व त्वं यत्‌ प्राप्तोऽहं त्वया स्मृत:॥२४॥

दत्तात्रेयं मुनि: प्राह मया किमपि नोच्यते।

त्वच्चित्ते यत्स्थितं तन्मे प्रयच्छ मुनिपुङ्गव॥२५॥

ममास्ति वज्रकवचं गृहाणेत्यवदन्मुनिम्‌।

तथेत्यङ्गिकृतवते दलादमुनये मुनि:॥२६॥

स्ववज्रकवचं प्राह ऋषिच्छन्द:पुर:सरम्‌।

न्यासं ध्यानं फलं तत्र प्रयोजनमशेषत:॥२७॥

अथ विनियोगादि :

अस्य श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रमन्त्रस्य किरातरूपी महारुद्र ऋषि:, अनुष्टप्‌ छन्द:,

श्रीदत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजम्‌, आं शक्ति:, क्रौं कीलकम्‌, ॐ आत्मने नम:।

ॐ द्रीं मनसे नम:। ॐ आं द्रीं श्रीं सौ: ॐ क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं क्ल:।

श्रीदत्तात्रेयप्रसादसिद्‌ध्यर्थे जपे विनियोग:॥ ॐ द्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नम:।

ॐ द्रीं तर्जनीभ्यां नम:। ॐ द्रूं मध्यमाभ्यां नम:।

ॐ द्रैं अनामिकाभ्यांनम:। ॐ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यांनम:।

ॐद्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:। ॐ द्रां ह्रदयाय नम:। ॐ द्रीं शिरसे स्वाहा।

ॐ द्रूं शिखायै वषट्‌। ॐ द्रैं कवचाय हुम्‌। ॐ द्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्‍।
ॐ द्र: अस्त्राय फट्‍। ॐ भूर्भुव:स्वरोम्‍ इरि दिग्बन्ध:।

अथ ध्यानम

जगदङ्कुरकन्दाय सच्चिदानन्दमूर्तये।

दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने (नम:)॥१॥

कदा योगी कदा भोगी कदा नग्न: पिशाचवत्।

दत्तात्रेयो हरि: साक्षाद्‍ भुक्तिमुक्तिप्रदायक:॥२॥

वाराणसीपुरस्नायी कोल्हापुरजपादर:।

माहुरीपुरभिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बर:॥३॥

इन्द्रनीलसमाकारश्चन्द्रकान्तसमद्युति:।

वैदुर्यसदृशस्फूर्तिश्चलत्किञ्चिज्जटाधर:॥४॥

स्निग्धधावल्ययुक्ताक्षोऽत्यन्तनीलकनीनिक:।

भ्रूवक्ष:श्मश्रुनीलाङ्क: शशाङ्कसदृशानन:॥५॥

हासनिर्जितनीहार: कण्ठनिर्जितकम्बुक:।

मांसलांसो दीर्घबाहु: पाणिनिर्जितपल्लव:॥६॥

विशालपीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दरोदर:।

पृथुलश्रोणिललितो विशालजघनस्थल:॥७॥

रम्भास्तम्भोपमानोरूर्जानुपूर्वैकजंघक:।

गूढगुल्फ: कूर्मपृष्ठो लसत्पादोपरिस्थल:॥८॥

रक्तारविन्दसदृशरमणीयपदाधर:।

चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे॥९॥

ज्ञानोपदेशनिरतो विपद्धरनदीक्षित:।

सिद्धासनसमासीन ऋजुकायो हसन्मुख:॥१०॥

वामह्स्तेन वरदो दक्षिणेनाभयंकर:।

बालोन्मत्तपिशाचीभि: क्वचिद्युक्त: परीक्षित:॥११॥

त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरञ्जन:।

सर्वरूपी सर्वदाता सर्वग: सर्वकामद:॥१२॥

भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गो महापातकनाशन:।

भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशय:॥१३॥

एवं ध्यात्वाऽनन्यचित्तो मद्वज्रकवचं पठेत्।

मामेव पश्यन्सर्वत्र स मया सह संचरेत्॥१४॥

दिगम्बरं भस्मसुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलम डमरुं गदायुधम्।

पद्‌मासनं योगिमुनीन्द्रवन्दितं दत्तेति नामस्मरेणन नित्यम्॥१५॥

अथ पञ्चोपचारपूजा

ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय लं पृथिवीगन्धतन्मात्रात्मकं चन्दनं परिकल्पयामि।

ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयायं हं आकाशशब्दतन्मात्रात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि।

ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय यं वायुस्पर्शतन्मात्रात्मकं धूपं परिकल्पयामि।

ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय रं तेजोरूपतन्मात्रात्मकं दीपं परिकल्पयामि।

ॐ नमोभगवते दत्तात्रेयाय वं अमृतरसत्नमात्रात्मकं नैवेद्यं परिकल्पयामि।

ॐ द्रां’ इति मन्त्रम् अष्टोत्तरशतवारं (१०८) जपेत्।)

अथ वज्रकवचम्

ॐ दत्तात्रेय: शिर: पातु सहस्त्राब्जेषु संस्थित:।

भालं पात्वानसूयेयश्चन्द्रमण्डलमध्यग:॥१॥

कूर्चं मनोमय: पातु हं क्षं द्विदलपद्मभू:।

ज्योतीरूपोऽक्षिणी पातु पातु शब्दात्मक: श्रुती॥२॥

नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मक:।

जिह्वां वेदात्मक: पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिक:॥३॥

कपोलावत्रिभू: पातु पात्वशेषं ममात्मवित्।

स्वरात्मा षोडशाराब्जस्थित: स्वात्माऽवताद्‍गलम्॥४॥

स्कन्धौ चन्द्रानुज: पातु भुजौ पातु कृतादिभू:।

जत्रुणी शत्रुजित्‍ पातु पातु वक्ष:स्थलं हरि:॥५॥

कादिठान्तद्वादशारपद्‍मगो मरुदात्मक:।

योगीश्वरेश्वर: पातु ह्रदयं ह्रदयस्थित:॥६॥

पार्श्वे हरि: पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थित: स्मृत:।

हठयोगादियोगज्ञ: कुक्षी पातु कृपानिधि:॥७॥

डकारादिफकारान्तदशारसरसीरुहे।

नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्वयात्मकोऽवतु॥८॥

वह्नितत्त्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम्।

कटिं कटिस्थब्रह्माण्डवासुदेवात्मकोऽवतु॥९॥

बकारादिलकारान्तषट्‍पत्राम्बुजबोधक:।

जलतत्त्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु॥१०॥

सिद्धासनसमासीन ऊरू सिद्धेश्वरोऽवतु।

वादिसान्तचतुष्पत्रसरोरुहनिबोधक:॥११॥

मूलाधारं महीरूपो रक्षताद्वीर्यनिग्रही।

पृष्ठं च सर्वत: पातु जानुन्यस्तकराम्बुज:॥१२॥

जङ्घे पत्ववधूतेन्द्र: पात्वङ्घ्री तीर्थपावन;।

सर्वाङ्गं पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशव:॥१३॥

चर्म चर्माम्बर: पातु रक्तं भक्तिप्रियोऽवतु।

मांसं मांसकर: पातु मज्जां मज्जात्मकोऽवतु॥१४॥

अस्थीनि स्थिरधी: पायान्मेधां वेधा: प्रपालयेत्।

शुक्रं सुखकर: पातु चित्तं पातु दृढाकृति:॥१५॥

मनोबुद्धिमहंकारम ह्रषीकेशात्मकोऽवतु।

कर्मेन्द्रियाणि पात्वीश: पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यज:॥१६॥

बन्धून‍ बन्धूत्तम: पायाच्छत्रुभ्य: पातु शत्रुजित्।

गृहारामधनक्षेत्रपुत्रादीञ्छ्ङ्करोऽवतु॥१७॥

भार्यां प्रकृतिवित्पातु पश्वादीन्पातु शार्ङ्गभृत्।

प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन्पातु भास्कर:॥१८॥

सुखं चन्द्रात्मक: पातु दु:खात्पातु पुरान्तक:।

पशून्पशुपति: पातु भूतिं भुतेश्वरो मम॥१९॥

प्राच्यां विषहर: पातु पात्वाग्नेय्यां मखात्मक:।

याम्यां धर्मात्मक: पतु नैऋत्यां सर्ववैरिह्रत्।२०॥

वराह: पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु।

कौबेर्यां धनद: पातु पात्वैशान्यां महागुरु:॥२१॥

ऊर्ध्व पातु महासिद्ध: पात्वधस्ताज्जटाधर:।

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षत्वादिमुनीश्वर:॥२२॥

ॐ द्रां’ मन्त्रजप:, ह्रदयादिन्यास: च।एतन्मे वज्रकवचं य: पठेच्छृणुयादपि।

वज्रकायश्चिरञ्जीवी दत्तात्रेयोऽहमब्रुवम्॥२३॥

त्यागी भोगी महायोगी सुखदु:खविवर्जित:।

सर्वत्रसिद्धसंकल्पो जीवन्मुक्तोऽथ वर्तते॥२४॥

इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बर:।

दलादनोऽपि तज्जप्त्वा जीवन्मुक्त: स वर्तते॥२५॥

भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवानिदम्।

सकृच्छ्र्वणमात्रेण वज्राङ्गोऽभवदप्यसौ॥२६॥

इत्येतद्वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिन:।

श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात्‍ पुनरप्याह पार्वती॥२७॥

पार्वत्युवाच

एतत्कवचमाहात्म्यम वद विस्तरतो मम।

कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम्॥२८॥

उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम्।

श्रीशिव उवाच

श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनविलम्॥२९॥

धर्मार्थकाममोक्षणामिदमेव परायणम्।

हस्त्यश्वरथपादातिसर्वैश्वर्यप्रदायकम्॥३०॥

पुत्रमित्रकलत्रादिसर्वसन्तोषसाधनम्।

वेदशास्त्रादिविद्यानां निधानं परमं हि तत्॥३१॥

सङ्गितशास्त्रसाहित्यसत्कवित्वविधायकम्।

बुद्धिविद्यास्मृतिप्रज्ञामतिप्रौढिप्रदायकम्॥३२॥

सर्वसंतोषकरणं सर्वदु:खनिवारणम्।

शत्रुसंहारकं शीघ्रं यश:कीर्तिविवर्धनम्॥३३॥

अष्टसंख्या: महारोगा: सन्निपातास्त्रयोदश।

षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगका:॥३४॥

अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मान्यष्टविधान्यपि।

अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंशत्तु पैत्तिका:॥३५॥

विंशति: श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादय:।

मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्या: कल्पतन्त्रादिनिर्मिता:॥३६॥

ब्रह्मराक्षसवेतालकूष्माण्डादिग्रहोद्‍भवा:।

संगजा देशकालस्थास्तापत्रयसमुत्थिता:॥३७॥

नवग्रहसमुद्‍भूता महापातकसम्भवा:।

सर्वे रोगा: प्रणश्यन्ति सहस्त्रावर्तनाद्‍ध्रुवम्॥३८॥

अयुतावृत्तिमात्रेण वन्ध्या पुत्रवती भवेत्।

अयुतद्वितयावृत्त्या ह्यपमृत्युजयो भवेत्॥३९॥

अयुतत्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते।

सहस्त्रादयुतादर्वाक्‍ सर्वकार्याणि साधयेत्॥४०॥

लक्षावृत्त्या कार्यसिद्धिर्भवत्येव न संशय:॥४१॥

विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन्‍ वै दक्षिणामुख:।

कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम्॥४२॥

औदुम्बरतरोर्मूले वृद्धिकामेन जाप्यते।

श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिन्तिणी शान्तिकर्मणि॥४३॥

ओजस्कामोऽश्वत्थमूले स्त्रीकामै: सहकारके।

ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभि:॥४४॥

धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके।

देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम्॥४५॥

नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुमालोक्य यो जपेत्।

युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेन जयो भवेत्॥४६॥

कण्ठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत्।

ज्वरापस्मारकुष्ठादितापज्वरनिवारणम्॥४७॥

यत्र यत्स्यात्स्थिरं यद्यत्प्रसक्तं तन्निवर्तते।

तेन तत्र हि जप्तव्यं तत: सिद्धिर्भवेद्‍ध्रुवम्॥४८॥

इत्युक्तवान्‍ शिवो गौर्ये रहस्यं परमं शुभम्।

य: पठेद्‍ वज्रकवचं दत्तात्रेयसमो भवेत्॥४९॥

एवम शिवेन कथितं हिमवत्सुतायै।

प्रोक्तं दलादमुनयेऽत्रिसुतेन पूर्वम्।

य: कोऽपि वज्रकवचं पठतीह लोके।

दत्तोपमश्र्चरति योगिवरश्र्चिरायु:॥५०॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले हिमवत्खण्डे मन्त्रशास्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्री दत्तात्रेय वज्र कवच सम्पूर्णम् ॥

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